
नई दिल्ली । भारत पाकिस्तान के बीच 1965 में हुई जंग को करीब 52 साल बीत चुके हैं, लेकिन इसकी यादें पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान के जहन में आज भी ताजा हैं। उस वक्त का जिक्र उन्होंने रावलपिंडी में आयोजित डिफेंस डे के मौके पर किया। उन्होंने बताया कि उस वक्त भारतीय फौज के जवानों का खौफ उन्होंने अपने परिवार के चेहरे पर साफ देखा था। हर तरफ भारतीय जवानों के आने का खौफ था और हर कोई परेशान था।
महज 12 वर्ष के थे इमरान
इमरान खान ने अपने इस भाषण के दौरान कहा कि वह उस वक्त महज 12 वर्ष के थे। लाहौर के जमान पार्क जहां पर उस वक्त इमरान का पूरा परिवार रहता था वह पर इस बात की चर्चा जोरों पर थी कि 7 सितंबर की रात में किसी भी वक्त भारतीय फौज के पैरा ट्रूपर्स उतरेंगे। इससे वहां सब डरे हुए थे। इमरान के मुताबिक इससे बचाव के लिए उनके बड़ों ने एक मीटिंग बुलाई और तय हुआ कि सभी लोग रात में पहरा देंगे। इमरान ने कहा कि वह भी उस वक्त अपने पिता की बंदूक लेकर वहां पहुंचे लेकिन उनके बड़े भाई ने उन्हें वहां से छोटा होने की वजह से वापस भेज दिया था। बकौल इमरान को उस वक्त अपने पर बड़ा गुस्सा भी आया था, कि वह जरूरत के समय अपने परिवार के काम नहीं आ सके।
परिवार पर भारतीय जवानों का खौफ
इमरान ने उस रात का जिक्र करते हुए कहा कि जमान पार्क में मौजूद लोगों के दिलों दिमाग पर भारतीय जवानों का खौफ इस कदर हो चुका था कि किसी ने देर रात वहां से गुजर रहे इमरान के रिश्तेदार पर ही अंधाधुंध फायरिंग करनी शुरु कर दी। हालांकि इस फायरिंग के दौरान उनका रिश्तेदार तो बच गया लेकिन खौफ खत्म नहीं हुआ। आपको बता दें कि जिस लड़ाई का जिक्र इमरान खान ने अपनी स्पीच में किया था उस दौरान भारत ने लाहौर पर कब्जा जमा लिया था। लाहौर के काफी अंदर तक भारतीय सेना घुस गई थी। जिस वक्त यह लड़ाई हुई उस वक्त देश की कमान लाल बहादुर शास्त्री के हाथों में थी।
पाकिस्तान को लौटाया जीता इलाका
उन्होंने पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए सेना को खुली छूट दी थी, लेकिन साथ ही यह भी कहा था कि किसी भी निर्दोष पर कोई जवान गोली न चलाए। हालांकि युद्ध के बाद भारत ने जीता हुआ सारा इलाका पाकिस्तान को वापस दे दिया था। आपको बता दें कि इस लड़ाई की शुरूआत पाकिस्तान ने अपने सैनिकों को घुसपैठियों के रूप में भेज कर इस उम्मीद में की थी कि कश्मीर की जनता भारत के खिलाफ विद्रोह कर देगी। इस अभियान का नाम पाकिस्तान ने ऑपरेशन जिब्राल्टर रखा था। यह लड़ाई अप्रैल से सितंबर तक करीब पांच महीने तक चली थी। इस का अंत संयुक्त राष्ट्र के द्वारा युद्ध विराम की घोषणा के साथ हुआ और ताशकंद में दोनों पक्षों में समझौता हुआ।
ताशकंद समझौता
आपको यहां पर ये भी बता दें कि ताशकंद में किए गए इस समझौते के बाद ही लाल बहादुर शास्त्री का ताशकंद में निधन हो गया था। इस लड़ाई की पटकथा लिखने वाले अहम किरदार तत्कालीन प्रधानमंत्री जुल्फीकार अली भुट्टो और सेना के दूसरे जनरल याहया खान थे। भुट्टो के दबाव में आकर ही पाकिस्तान सेना के तत्कालीन जनरल अयूब खान ने इस लड़ाई को हरी झंडी दी थी। बाद में अयूब खान ने पाकिस्तान की सत्ता को भी हथिया लिया था। जहां तक बात है भुट्टो की तो जनरल जिया उल हक ने उनकी सरकार का तख्ता पलट किया और बाद में भुट्टो को फांसी दे दी गई थी। इस लड़ाई में दोनों देशों की थल सेना ने हिस्सा लिया था। कारगिल युद्ध के पहले कश्मीर के विषय में कभी इतना बड़ा सैनिक जमावड़ा नहीं हुआ था।