विवेक झा, भोपाल।
देश की दवा निर्माण व्यवस्था की रीढ़ मानी जाने वाली सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम श्रेणी की दवा निर्माण इकाइयाँ (फार्मा एमएसएमई) आज अस्तित्व के सबसे बड़े संकट से गुजर रही हैं। केंद्र सरकार की कठोर नीतियों, केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (सीडीएससीओ) की हालिया कार्रवाइयों और जनवरी 2026 से लागू होने वाले नए शेड्यूल-एम मानकों ने छोटे व मझोले निर्माताओं की चिंता बढ़ा दी है। यही मुद्दे सोमवार को फेडरेशन ऑफ मध्यप्रदेश चेम्बर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री के भोपाल स्थित कार्यालय में आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस में उठाए गए।
बैठक की अध्यक्षता फेडरेशन के अध्यक्ष दीपक शर्मा ने की। इस दौरान हिन्द फार्मा से डॉ. आर.एस. गोस्वामी, फेडरेशन ऑफ फार्मा इंटरप्रेन्योर्स के राष्ट्रीय और प्रांतीय पदाधिकारी, जिनमें अमित चावला, एम.एल. जैन, प्रशांत सिंह, अभिजीत मोतीवाला, हिमांशु शाह और सुधीर वोरा सहित कई प्रतिनिधि मौजूद रहे।
अस्तित्व पर संकट
फोरम ने चेतावनी दी कि यदि सरकार ने राहत नहीं दी तो आने वाले महीनों में लगभग 4–5 हज़ार दवा निर्माण इकाइयाँ बंद हो सकती हैं। इससे सस्ती व किफायती दवाओं की आपूर्ति बाधित होगी और भारत का “दुनिया की फार्मेसी” वाला दर्जा भी संकट में पड़ सकता है।
प्रतिनिधियों ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जीएसटी सुधार और अन्य योजनाओं से छोटे उद्योगों को आत्मविश्वास मिला था और उन्होंने गुणवत्ता सुधार में निवेश भी किया, लेकिन अब सीडीएससीओ की नीतियाँ बड़े उद्योगों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हित में काम कर रही हैं।
बायो-इक्विवेर्लेंस अध्ययन की लागत मौत का फरमान
ज्ञापन में कहा गया कि दशकों से प्रमाणित दवाओं पर भी अब बायो-इक्विवेर्लेंस अध्ययन अनिवार्य कर दिया गया है। इसकी लागत प्रति दवा 25 से 50 लाख रुपये है, जो छोटे उद्योगों के लिए असंभव है। इसका असर जन औषधि केंद्रों और सरकारी आपूर्ति चैनल पर सीधे तौर पर पड़ेगा और आम जनता को सस्ती दवाएँ नहीं मिल पाएँगी।
निर्यात पर रोक से बाज़ार हाथ से निकल रहा
अमित चावला ने बताया कि निर्यात के लिए एनओसी (अनापत्ति प्रमाणपत्र) केवल नशीली दवाओं तक सीमित होना चाहिए। अन्य सामान्य दवाओं पर रोक लगाने से भारत विदेशी बाज़ार चीन, बांग्लादेश, श्रीलंका और वियतनाम जैसे देशों के हाथों खो रहा है।
शेड्यूल-एम मानकों पर मोहलत की माँग
सबसे गंभीर समस्या 1 जनवरी 2026 से लागू होने वाले संशोधित शेड्यूल-एम मानकों को लेकर है। छोटे उद्योगों का कहना है कि भारी निवेश किए बिना इन मानकों का पालन करना संभव नहीं है। फोरम ने माँग की कि 50 करोड़ रुपये से कम वार्षिक टर्नओवर वाली इकाइयों को कम से कम 1 अप्रैल 2027 तक मोहलत दी जाए।
भेदभावपूर्ण निरीक्षण
प्रतिनिधियों ने आरोप लगाया कि “रिस्क बेस्ड इंस्पेक्शन” में छोटे उद्योगों को निशाना बनाया जाता है, जबकि बड़ी कंपनियों के खिलाफ अमेरिका और अन्य देशों से लगातार आने वाली रिकॉल रिपोर्टों पर कोई कार्रवाई नहीं होती।
एनएसक्यू रिपोर्टिंग और अन्य मुद्दे
फोरम ने कहा कि केवल 2.64% दवाओं को गैर-मानक बताकर पूरी एमएसएमई इंडस्ट्री को बदनाम करना अनुचित है। माँग की गई कि दोषपूर्ण दवाओं के साथ-साथ मानक गुणवत्ता वाली दवाओं की सूची भी हर महीने जारी की जाए। साथ ही, दवा निर्माण इकाइयों को न्यूट्रास्यूटिकल्स और कॉस्मेटिक्स उत्पादन की अनुमति भी फिर से दी जानी चाहिए।
संयुक्त मंच की चेतावनी
देशभर की 30 से अधिक एसोसिएशन, जिनमें सीआईपीआई, फोप, एसएमपीएमए, एचडीएमए (बद्दी), एचपीएमए (हरियाणा), केपीडीएमए (कर्नाटक), पीएमएटी (तमिलनाडु), डीएमएमए (गुजरात), एमपीपीएमओ (मध्यप्रदेश), आरपीएमए (राजस्थान), ओडीएमए (ओडिशा) और वीडीएमए (विदर्भ) शामिल हैं, इस मुद्दे पर एकजुट हो गई हैं। उन्होंने साफ चेतावनी दी है कि यदि सरकार ने जल्द राहत नहीं दी तो उद्योग दो दिन का राष्ट्रव्यापी उत्पादन बंद (वेतन सहित) करने को बाध्य होगा।
“देश के स्वास्थ्य तंत्र पर संकट”
फेडरेशन ऑफ फार्मा एंटरप्रेन्योर्स मध्यप्रदेश चैप्टर के चेयरमैन हिमांशु शाह और वाइस प्रेसिडेंट अमित चावला ने कहा कि सस्ती और गुणवत्तापूर्ण दवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करना हमारी जिम्मेदारी है। किंतु इसके लिए सरकार का सहयोग और कम से कम दस वर्षों का स्पष्ट रोडमैप आवश्यक है। उन्होंने कहा, “नियमों को इतना कठोर बनाकर छोटे उद्योगों को समाप्त करना देश के स्वास्थ्य तंत्र और आने वाली पीढ़ियों दोनों के लिए घातक होगा।”
निर्यात पर रोक और बाज़ार का नुकसान
संयुक्त फोरम ने यह भी कहा कि निर्यात एनओसी को केवल नशीली और लत पैदा करने वाली दवाओं तक सीमित रखा जाए। अन्य सामान्य दवाओं पर रोक लगाने से भारत अपने पारंपरिक बाज़ार चीन, बांग्लादेश, श्रीलंका और वियतनाम जैसे देशों को खो रहा है।
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चीन में सरकार फार्मा एमएसएमई को टैक्स में छूट और तकनीकी सहयोग देती है।
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बांग्लादेश ने WHO की “ट्रिप्स छूट” का लाभ उठाकर जेनेरिक दवा उद्योग को मज़बूत किया है और अब भारत के पुराने बाज़ारों में तेजी से पैर पसार रहा है।
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भारत, जो कभी अफ्रीका और एशिया में जेनेरिक दवाओं का सबसे बड़ा सप्लायर था, अब अपने ही नियमों के कारण प्रतिस्पर्धा में पिछड़ता जा रहा है।





