एक साथ चुनाव पर सर्वदलीय बैठक का बहिष्कार, विश्वास की कमी से जूझ रही कांग्रेस की एक और गलती

कांग्रेस की सोच समझ से परे है। लोकसभा चुनाव के दौरान जो आचार व्यवहार रहा, उसकी बात छोड़ दी जानी चाहिए क्योंकि जनता ने ही उसका जवाब दे दिया। जनादेश ने जिस तरह कांग्रेस को लगातार दूसरी बार दस फीसद सीटों से भी नीचे खड़ा कर दिया, वह यह बताने के लिए काफी है कि देश की सबसे पुरानी पार्टी लोगों की सोच के साथ तालमेल नहीं बिठा पा रही है। वह जनता की भावना व अपेक्षा को नहीं समझ पा रही है।

अफसोस तो यह है कि बार-बार के झटके के बावजूद कांग्रेस अपनी जिम्मेदारी को नहीं समझ पा रही है। एक देश, एक चुनाव यानी एक साथ लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव के लिए प्रधानमंत्री की ओर से बुलाई गई सर्वदलीय बैठक का जिस तरह कांग्रेस ने बहिष्कार किया, वह साबित करता है कि कांग्रेस गलतियों से सीख लेने के लिए तैयार नहीं है।

अभी दो दिन पहले 17वीं लोकसभा की शुरुआत के दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से एक बयान आया था कि विपक्ष को यह नहीं सोचना चाहिए कि उसके पास कितने नंबर हैं। उन्हें अपने विचार रखने चाहिए और सरकार हर किसी के विचार को सुनकर आगे बढ़ेगी। तत्काल कांग्रेस की ओर से उत्तर आया था और उम्मीद जताई गई थी कि विधेयकों पर विपक्ष की राय सुनी जाएगी और बहुमत के बल पर उसे नहीं दबाया जाएगा। एक तरह से कांग्रेस ने तंज किया था। फिर बुधवार को कांग्रेस को क्या हो गया.?

प्रधानमंत्री की ओर से एक बैठक बुलाई गई और कांग्रेस अपने विचार रखने तक को आने को तैयार नहीं हुई। कई छोटे विपक्षी दलों ने बहिष्कार किया तो उसे नजरअंदाज किया जा सकता है लेकिन कांग्रेस तो राष्ट्रीय पार्टी है। आज भी पांच राज्यों में कांग्रेस की सरकार है। क्या उसके लिए यह उचित नहीं था कि बैठक में आए और विरोध करना है तो विरोध ही करे। तर्को के साथ अपनी बात रखे। लेकिन कांग्रेस नेतृत्व और उसके सलाहकारों की बलिहारी, उसने तो हार ही मान ली।

कांग्रेस के इस व्यवहार से आशंका जरूर होगी कि वह न सिर्फ संख्या में बल्कि सोच और मनोबल में भी छोटी होने लगी है। डरी हुई है। इस कोशिश में है कि किसी भी मुद्दे पर विरोधी दलों के साथ ही खड़ी रहे ताकि एक खेमा तो बना रहे। यह डर कांग्रेस के लिए खतरनाक है। बैठक में सभी दलों के नेताओं को बुलाया गया था।

अगर कांग्रेस अध्यक्ष नहीं आ सकते थे तो किसी भी दूसरे वरिष्ठ नेता को भेजा जा सकता था जो तर्को के साथ यह बात रख पाते कि एक साथ चुनाव कराना देश के हित में नहीं है। दरअसल अब तक अलग-अलग मंचों से जितनी भी चर्चा हुई है, उसमें यही बात मानी गई है कि एक साथ चुनाव हुए तो देश का पैसा भी बचेगा, वक्त भी और विकास की धारा भी अवरुद्ध नहीं होगी। वह पैसा, वह वक्त जनता का है।

इसका विरोध करने वाले दल व्यावहारिकता आदि की दलील देते रहे हैं। सच्चाई यह है कि इसके पीछे दलों का डर छिपा है। बैठक से बाहर रहकर कांग्रेस ने इसे जाहिर कर दिया। अब उसे यह सोचना चाहिए कि जनता को कैसे समझाएगी।

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